हमारे बुद्धिजीवियों ने समाज की वास्तविक स्थितियो के बारे में प्रचार प्रसार ही नही किया, कुछ को छोड़कर। हमारे समुदाय में सीमित संसाधन थे, और है, लेकिन हम उन्ही सीमित संसाधनों का उपयोग भी नही कर पा रहे है।
हमें अपने पास सीमित संसाधनों से लोगों में जागरूकता फैलाने की आवश्यकता है तभी हम आगे बढ़ पाएंगे। हर जाति और समुदाय अपने अपने हिसाब से उसकी समृद्धि के लिए जो भी जिसके बस में होता है वह करता है लेकिन हम या तो करना नही चाहते है या हम उस बारे में सोचना ही नही चाहते है। हर बार अगर किसी भी मुद्दे पर अपनी बात रखना चाहता है तो हम उसे रखने नही देते है अगर गलती से किसी ने रख दिया तो जो उस मुद्दे के विरोधी होते है वे उसका मानसिक वध करने पर लग जाते है। कभी कोई भी यह नही पूछता है कि आखिर इसके फायदे क्या होंगे क्या नुकसान होंगे।
हमारा समुदाय जहां तक मैंने पढ़ा है काफी प्रगतिशील विचार रखता था लेकिन आजकल हम एक ढर्रे की तरह सोचने लगे है। हमारी सांस्कृतिक पहचान अलग अलग राज्यों में अलग हो सकती है लेकिन मैं समझता हूँ कि हमारी सामाजिक पहचान एक ही है। हम सामाजिक रूप से एक है और एक ही रहेंगे। हम धानुक को धनुष का अप्रभंश तो मानने के लिए तैयार है लेकिन जिस धनुष से अप्रभंषित होकर धानुक एक ग्रुप बना और बाद में एक जाति कहलाया तथा जिसकी सबसे ज्यादा व्याख्या दिल्ली और मुग़ल सल्तनत काल में मिलती है वे तब आगरा/दिल्ली में केंद्रित था जिसके अंदर हम एक स्थानीय मिलिशिया के रूप में जाने जाते थे लेकिन उसी आगरा के धानुक से हम अलग है, अपने आपको साबित करने में लगे हुए है।
हम वास्तिवकता से भागने की कोशिश में लगे हुए है और उसी क्रम में जो अच्छा लगता है उसपर हामी तो भरते है लेकिन जैसे ही कुछ अच्छा नही लगता है वैसे ही हम उस व्यक्ति या विचार का मानसिक वध करने की कोशिश में लग जाते है। मानते है हमारे अंदर विश्वास और धैर्य की कमी है लेकिन क्या यह दो भावनाये ऐसी है जिसका संपादन नही किया जा सकता है।
मेरा मानना है की जब भी कोई विचार आता है किसी भी प्लेटफॉर्म पर उसपर चर्चा अवश्य करनी चाहिए कि क्या वह समाज के लिए सही है या नही या क्या फ़ायदे और नुकसान होने वाले है। एकदम सिरे से नकार देना बुद्धिमत्ता का परिचय तो नही देता है। लेकिन मैं कुछ सालों से देख रहा हूँ जो अपने आपको पढ़े लिखे समझदार कहते है वो झटके से विचारों को त्यागने की बात करते है कि नही हमें इसपर बात ही नही करनी है। यह दर्शाता है कि हम सामाजिक रूप से दशकों से कितने अपरिपक्व है और इस प्रकार की बाते हमारी अपरिपक्वता को बढ़ाएगी ना कि घटाएगी। जरूरी नही जो कम पढ़े लिखे है वे समझदार या अपरिपक्व नही होंगे वे समझदार भी हो सकते है और उनके अंदर परिपक्वता के साथ साथ धैर्य भी कूट कूटकर भरा होगा जो इस समाज के लिए बहुत ही जरूरी है। लेकिन हम उन्हें बुद्धिजीवियों की गिनती में नही लाते है तो वे बेचारे अपने आप को समाज के मुख्य धारा से कटा हुआ महसूस करता है।
जहाँ भी लोग मीटिंग में जाते है सिर्फ हम कुछ रटा रटाया बात ही करते है उसके समाधान की ओर नही जाते है क्यो क्योंकि हम पहले से लोगों को मुद्दे नही देते है की वे इस मुद्दे के हल के बारे में विचार करने वाले है इसलिए आप तैयारी करें और लोगो के बीच रखे।
आखिर में दो लाइन और जोड़ूँगा जिससे लोगो को तकलीफ़ तो होगी लेकिन मैं कहूँगा जरूर। वो यह कि हम विचारशील दिखना तो चाहते है, लेकिन है नही। हम बुद्धिजीवी दिखना तो चाहते है, लेकिन है नही। हम समाजसेवी दिखना तो चाहते है, लेकिन है नही। हम परिपक्व तो दिखना चाहते है, लेकिन है नही। हम दूसरों के बारे में सोचते तो है, लेकिन हम अपने बारे में सोचते है।
धन्यवाद।
शशि धर कुमार
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