अमर शहीद रामफल मंडल
अमर शहीद रामफल मंडल
अमर शहीद रामफल मंडल, आजादी के आन्दोलन में बिहार की भूमिका महत्वपूर्ण रही है, फिर भी वर्तमान बिहार एवं बिहारियों की कुर्वानी को आकलन करने से यह महसूस होता है कि कहीं न कहीं उन बिहारियों की उपेक्षा की गयी है, जिन्होंने अपनी कुर्बानी फांसी को गले लगाकर आजाद भारत के निर्माण में अपना योगदान दिया था। वैसे तो सम्पूर्ण भारत के निवासियों ने अपने-अपने स्तर पर देश की आज़ादी में अपनी अपनी भूमिका निभायी, जिसमें उस समय के तत्कालीन बिहार की भूमिका अग्रणी रही है। उस समय के बिहार का चाहे “देवघर विद्रोह”(1857), “दानापुर विद्रोह”(1857) , “विरसा मुंडा आन्दोलन, खूंटी”(1900), “चंपारण सत्याग्रह” (1918 -19), “अंग्रेजो भारत छोड़ो” एवं “करेंगे या मरेंगे” (1942) आन्दोलन हो, सभी में बिहार ने अग्रणी भूमिका अदा की है। लाठियां और गोलियां खायी है और फांसी को गले लगाया है। गोली से मारे गये शहीदों की संख्या हजारों में है, जबकि फांसी पर लटकाए गए शहीदों की संख्या सैकड़ों में। गोली खाकर शहीद होना घटना/दुर्घटना हो सकती है परन्तु फांसी पर लटकाया जाना वैचारिक शहीद। यही वजह है कि अमर शहीद भगत सिंह, राज गुरु ,सुखदेव, चन्द्रशेखर आज़ाद आदि का नाम बच्चा- बच्चा जानता है। परन्तु बिहारी शहीदों को जो सम्मान मिलना चाहिए था, वह उचित सम्मान आज तक नहीं मिल पाया है।
उदाहरण स्वरुप अमर शहीद रामफल मंडल जी को ही लिया जाये। आप अवगत है कि अमर शहीद रामफल मंडल जी ने बाजपट्टी, सीतामढ़ी में 1942 में अंग्रेजो भारत छोड़ो आन्दोलन में अग्रणी भूमिका निभायी। आन्दोलन को दबाने के लिए अंग्रेजो द्वारा सीतामढ़ी गोलीकांड हुई बच्चे, बूढ़े और औरत गोलीकांड में मारे गए, विरोध स्वरुप वीर सपूत रामफल मंडल ने गोलीकांड के जबाबदेह अंग्रेजी हुक्मरानों के तत्कालीन एस.डी.ओ. एवं अन्य दो सिपाही को गडासा से कुट्टी-कुट्टी काट दिया था और आजाद भारत/बिहार के निर्माण में अग्रणी भूमिका निभायी थी।
वर्तमान बिहार के सन्दर्भ में फांसी पर लटकाए गए शहीदों को खंगालना शुरू किया तो एक तथ्य सामने आयी है कि अमर शहीद रामफल मंडल वर्तमान बिहार के 1942 क्रांति के प्रथम बिहारी सपूत है जिन्हें फांसी पर लटकाया गया। कैसे?
12 जून 1857 ई. को पहले-पहल रोहणी (देवघर, जो आज झारखण्ड में है।) में देशी सैनिक विद्रोह हुआ , जिसमें तीन देशी सैनिकों को फांसी दी गयी। (1857 में बिहार, जो उस समय बंगाल प्रोविंस में था, तब के बंगाल प्रोविंस में आज का बंगलादेश ,असम, पश्चिम बंगाल ,उड़ीसा और बिहार शामिल था। आज यह झारखण्ड में है।)
पटना में पेशे से जिल्दसाज पीर अली क्रांतिकारियों को अंग्रेजों की गतिविधियों का गुप्त संदेश देते थे। पटना के तत्कालीन कमिश्नर विलियम टेलर ने खान और उनके साथियों को गिरफ्तार कर लिया। अंग्रेजी हुकूमत ने 7 जुलाई, 1857 को पीर अली के साथ घासिता, खलीफा, गुलाम अब्बास, नंदू लाल उर्फ सिपाही, जुम्मन, मदुवा, काजिल खान, रमजानी, पीर बख्श, वाहिद अली, गुलाम अली, महमूद अकबर और असरार अली को बीच सड़क पर फांसी पर लटका दिया था। राजधानी पटना के गांधी मैदान के निकट शहीद पीर अली चिल्ड्रेन पार्क उन्ही के नाम पर है। अमर शहीद पीर अली साहब का जन्म संभवतः उत्तरप्रदेश ,आजमगढ़ हुआ था।
7 जनवरी 1900 को तीन सौ मुंडाओ ने तीर-धनुष, भाले से लैस होकर खूटी थाना (आज का झारखण्ड) पर हमला कर एक सिपाही को को मार दिया ,बिरसा मुंडा को पकड़ लिया गया ,लगभग 350 लोंगों पर मुक़दमा चला, तीन को फांसी दी गयी।
खुदीराम बोस को मौजूदा राज्य बिहार के मुजफ्फरपुर शहर में किए गए एक बम हमले का दोषी पाया गया और उन्हें मौत की सजा सुनाई गई, मिदनापुर (पश्चिम बंगाल) में 1889 में पैदा हुए बोस भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सबसे कम उम्र के क्रांतिकारियों में शामिल थे। भारतीय आजादी की लड़ाई के सबसे युवा शहीदों में एक खुदीराम बोस को 1908 में फांसी दे दी गई। खुदीराम को जब फांसी पर चढ़ाया गया, तो उनकी उम्र सिर्फ साढ़े 18 साल थी। 11 अगस्त, 1908 को फांसी वाले दिन पूरे कोलकाता में लोगों का हुजूम लग गया। उस वक्त अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे भारतीय युवाओं को फांसी देना कोई बहुत बड़ी बात नहीं थी, लेकिन इस उम्र के एक क्रांतिकारी के सामने आने पर बोस को काफी सहानुभूति मिली।
अमर शहीद जुब्बा सहनी को मुजफ्फरपुर थाना को घेरकर आग लगाने एवं सिपाहियों को आग में फेकने के आरोप में 11 मार्च 1944 को फांसी दी गयी।
इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि 1942 क्रांति के बाद अमर शहीद रामफल मंडल वर्तमान बिहार के पहले शहीद हैं जिन्हें फांसी दी गयी।
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