सामाजिक एकता ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की नजर में
सामाजिक एकता – अपना सफल जीवन बनाने के वास्ते हम सब मिलकर चले, मिलकर बातचीत करें और एकमत होकर हम सब अपनी जीवन-यात्रा पूरी करें जैसा कि पहिले के विद्वान किया करते थे। हमारी सभाएं हमारे मन, हमारे विचार, हमारी काम करने की शैली, एक जैसी अविरुद्ध हों। हमारे शुभ संकल्प एक जैसे हों, हमारे मन और हृदय अविरुद्ध हों जिससे हम एक दूसरे की यथा समय सहायता कर सकें। हम कभी अपने आपको अकेला न समझें और पड़ोसी, मुहल्ले वालों, नगर-निवासियों और देशवासियों की सहायता करने पर तत्पर रहे। प्राचीन काल में सभी लोग एक स्थान पर सम्मिलित होकर सामूहिक मंत्रणाएं किया करते थे, उनके कार्य परस्पर अविरुद्ध होते थे जिससे उनका सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन संगठित था, उसमें पारस्परिक फूट और विश्रृंखलता नहीं थी और इसी कारण उस काल में हम संगठन के शिखर पर आसीन थे। हमारा जीवन आज की अपेक्षा अधिक सामाजिक और सुसंस्कृत था। उस समय प्रत्येक व्यक्ति, वैयक्तिक सुख, स्वतंत्रता, कीर्ति, अधिकार आदि की आकाँक्षाओं को भूलकर सार्वजनिक सुख को ही जीवन का ध्येय बनाना चाहता था।
आज हम जाति के तौर पर अत्यन्त असंगठित और असहाय है। हम संसार की अन्य जातियों की तुलना में कम सामाजिक है और इसलिए हम बांकियों द्वारा पद दलित होते रहे है। हमारी इस दुरवस्था का कारणों पर यथोचित ध्यान नहीं दिया और हमने अपनी विचार-धारा और कार्य प्रणाली को एक समान बनाने का सफल प्रयत्न नहीं किया। पारस्परिक मतभेद के कारण हमारी जाति आज अत्यन्त जर्जरित है और यदि हम अपने आपको नहीं सँभालते है तो भय है कि जीवन संग्राम में हम पराजित न हो जावे और अन्य जातियाँ हमे आत्मसात् न कर लें। अतएव यह उपयुक्त अवसर है कि हम यह जान लें कि किस तरह हम आज अपनी रक्षा कर सकते हैं? और वे कौन से कारण हैं जिनके कारण विजयी धानुक जाति आगे चलकर बहुत समय तक भी सुख समृधि के साथ रह पाए?
संसार की जातियों के इतिहास का अध्ययन करने से पता चलता है कि प्रत्येक जाति अपने पूर्व इतिहास, जातीय और धार्मिक, साहित्य तथा संस्कृति से प्रभावित रहती है। उसके जातीय जीवन के अन्तस्तल में एक विशेष भाव या खयाल ही काम करता नजर आता है और वही जातीय जीवन को चलाता है। आज तो यह खयाल हमारे अन्दर अकेले ही जोर पकड़ गया है और फल स्वरूप लोक सेवा की दृष्टि से कार्य करने के पूर्वजों के विचार तथा इस विचार को मर्यादित रखने के लिए अन्य विचार दब से गए हैं। अच्छे से अच्छा विचार भी जब किसी समाज में अकेले ही जोर पकड़ जाता है तब वह उस समाज को नीचे ढकेल देता है। इस कारण हमारी विचार धारा और जीवन के असंतुलित होने से यह विचार हमारे असामाजिक जीवन का जन्म दाता बन हमारे पतन का कारण बन गया है। हमारे समाज के अनेकों कल्याण कामी व्यक्तियों के जीवन का लक्ष्य संसार को मिथ्या मानकर तथा प्रिय परिजनों एवं समाज की सेवा को मोह एवं बन्धन का कारण मानकर और इसलिए संसार से भागकर आत्मकल्याण करना तथा लोक हितकारी कर्तव्यों से विरत रहना, बन गया है। इसी कारण धानुक जाति अन्य जातियों के मुकाबले में अधिक सामाजिक नहीं हो पाई।
हम अधिकतर समाज से भागकर ही सामाजिक सुख दुखों से अनासक्त रहने वाला और उसके सुख दुखों से कम सम्बन्ध रखने वाला बनाती रही है। जबकि अभी तक सदाचारी, विद्वान और श्रेष्ठजनों पर मायावाद का प्रभाव समाज के बंधनों को तोड़कर साँसारिक जीवन से दूर भगाकर उन्हें असामाजिक बना देना ही रहा है तब योग्य कर्णधारों के अभाव में समाज और भी अधिक असामाजिक और विच्छृंखल न होता तो क्या होता? किन्तु यदि हम लोग भगवान कृष्ण के कर्मयोग के संदेश को कि “यद्यपि मुझे संसार में कुछ भी अप्राप्त और अप्राप्य नहीं है तथापि मैं, फिर भी कर्म करता ही रहता हूँ” पहिले से ही न भूलते तो संभव है कि हमें ये दुर्दिन देखने को न मिलते।
धानुक जाति की यह दुरवस्था तब से हुई जब से कि हमारे सामाजिक जीवन से सामाजिक एकता लुप्त हो गई और हम अनेक दिशाओं में जाने लगे। हमारा सामाजिक पतन तब से आरंभ हुआ जब से कि हमने एक साथ मिलकर बातचीत करना एवं एक साथ मिलकर विचार करना छोड़ दिया और हमने अपने सामाजिक संगठन के सर्वोत्तम प्रतीक एवं आधार का भी परित्याग कर दिया। पहले के लोग समय समय पर एक ही स्थान पर सम्मिलित होकर सामूहिक मंत्रणाएं किया करते थे किंतु जब से हमने स्वतंत्र रूप से विचार करने के साथ साथ एक ही विचारधारा पर पहुँच कर एक जैसा कार्य करने के उत्तरदायित्व का समुचित निर्वाह करना छोड़ दिया तब से हम भिन्न भिन्न दिशाओं में गमन करने लगे और हमारे एक सूत्र में बंधकर कार्य करने की आशा जाती रही। लोग अपनी अपनी ढपली पर अपना अपना राग अलापने लगे और हमारी एकता लुप्त होती गई। इस पृथकता को मिटाकर हम सामाजिक एकता की ओर बढ़ें इसी में हमारा कल्याण है।
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