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What is Gotra – गोत्र क्या है?

What is Gotraगोत्र विवाह आदि संस्कारों में और साधारणतया सभी धार्मिक कामों में गोत्र प्रवर और शाखा आदि की आवश्यकता हुआ करती है।
गोत्र मोटे तौर पर उन लोगों के समूह को कहते हैं जिनका वंश एक मूल पुरुष पूर्वज से अटूट क्रम में जुड़ा है। व्याकरण के प्रयोजनों के लिये पाणिनि में गोत्र की परिभाषा है ‘अपात्यम पौत्रप्रभ्रति गोत्रम्’ (४.१.१६२), अर्थात ‘गोत्र शब्द का अर्थ है बेटे के बेटे के साथ शुरू होने वाली संतान्। गोत्र, कुल या वंश की संज्ञा है जो उसके किसी मूल पुरुष के अनुसार होती है। गोत्र को हिन्दू लोग लाखो हजारो वर्ष पहले पैदा हुए पूर्वजो के नाम से ही अपना गोत्र चला रहे हैंं।

गोत्रीय तथा अन्य गोत्रीय
भारत में हिंदू विधि के मिताक्षरा तथा दायभाग नामक दो प्रसिद्ध सिद्धांत हैं। इनमें से दायभाग विधि बंगाल में तथा मिताक्षरा पंजाब के अतिरिक्त शेष भारत में प्रचलित है। पंजाब में इसमें रूढ़िगत परिवर्तन हो गए हैं। मिताक्षरा विधि के अनुसार रक्तसंबंधियों के दो सामान्य प्रवर्ग हैं :

(१) गोत्रीय अथवा गोत्रज सपिंड, और
(२) अन्य गोत्रीय अथवा भिन्न गोत्रीय अथवा बंधु।
हिंदू विधि के मिताक्षरा सिद्धांत के अनुसार रक्त संबंधियों को दो सामान्य प्रवर्गों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम प्रवर्ग को गोत्रीय अर्थात् ‘सपिंड गोत्रज’ कहा जा सकता है। गोत्रीय अथवा गोत्रज सपिंड वे व्यक्ति हैं जो किसी व्यक्ति से पितृ पक्ष के पूर्वजों अथवा वंशजों की एक अटूट श्रृखंला द्वारा संबंधित हों। वंशपरंपरा का बने रहना अत्यावश्यक है। उदाहरणार्थ, किसी व्यक्ति के पिता, दादा और परदादा आदि उसके गोत्रज सपिंड या गोत्रीय हैं। इसी प्रकार इसके पुत्र पौत्रादि भी उसके गोत्रीय अथवा गोत्रज सपिंड हैं, या यों कहिए कि गोत्रज सपिंड वे व्यक्ति हैं जिनकी धमनियों में समान रक्त का संचार हो रहा हो।

रक्त-संबंधियों के दूसरे प्रवर्ग को ‘अन्य गोत्रीय’ अथवा भिन्न गोत्रज सपिंड या बंधु भी कहते हैं। अन्य गोत्रीय या बंधु वे व्यक्ति हैं जो किसी व्यक्ति से मातृपक्ष द्वारा संबंधित होते हैं। उदाहरण के लिये, भानजा अथवा भतीजी का पुत्र बंधु कहलाएगा।

गोत्रीय से आशय उन व्यक्तियों से है जिनके आपस में पूर्वजों अथवा वंशजों की सीधी पितृ परंपरा द्वारा रक्तसंबंध हों। परंतु यह वंश परंपरा किसी भी ओर अनंतता तक नहीं जाती। यहाँ केवल वे ही व्यक्ति गोत्रीय हैं जो समान पूर्वज की सातवीं पीढ़ी के भीतर आते हैं। हिंदू विधि के अनुसार पीढ़ी की गणना करने का जो विशिष्ट तरीका है वह भी भिन्न प्रकार का है। यहाँ व्यक्ति को अथवा उस व्यक्ति को अपने आप को प्रथम पीढ़ी के रूप में गिनना पड़ता है जिसके बार में हमें यह पता लगाना है कि वह किसी विशेष व्यक्ति का गोत्रीय है अथवा नहीं। उदाहरण के लिये, यदि ‘क’ वह व्यक्ति है जिसके पूर्वजों की हमें गणना करनी है तो ‘क’ को एक पीढ़ी अथवा प्रथम पीढ़ी के रूप में गिना जायगा। उसके पिता दूसरी पीढ़ी में तथा उसके दादा तीसरी पीढ़ी में आएँगे और यह क्रम सातवीं पीढ़ी तक चलेगा। ये सभी व्यक्ति ‘क’ के गोत्रीय होंगे। इसी प्रकार हम पितृवंशानुक्रम में अर्थात् पुत्र पौत्रादि की सातवीं पीढ़ी तक, अर्थात् ‘क’ के प्रपौत्र के प्रपौत्र तक, गणना कर सकते हैं। ये सभी गोत्रज सपिंड हैं परंतु केवल इतने ही गोत्रज सपिंड नहीं हैं। इनके अतिरिक्त सातवीं पीढ़ी तक, जिसकी गणना में प्रथम पीढ़ी के रूप में पिता सम्मिलित हैं, किसी व्यक्ति के पिता के अन्य पुरुष वंशज अर्थात् भाई, भतीजा, भतीजे के पुत्रादि भी गोत्रज सपिंड हैं। इसी प्रकार किसी व्यक्ति के दादा के छ: पुरुष वंशज और परदादा के पिता के छ: पुरुष वंशज भी गोत्रज सपिंड हैं। हम इन छ: वंशजों की गणना पूर्वजावलि के क्रम में तब तक करते हैं जब तक हम ‘क’ के परदादा के परदादा के छ: पुरुष वंशजों को इसमें सम्मिलित नहीं कर लेते। इस वंशावलि में और गोत्रज सपिंड भी सम्मिलित किए जा सकते हैं जैसे ‘क’ की धर्मपत्नी तथा पुत्री और उसका दौहित्र। ‘क’ के पितृपक्ष के छह वंशजों की धर्मपत्नियाँ अर्थात् उसकी माता, दादी, परदादी और उसके परदादा के परदादा की धर्मपत्नी तक भी गोत्रज सपिंड हैं।

जिनके गोत्र ज्ञात न हों उन्हें ‘काश्यप’ गोत्रीय माना जाता है।

सगोत्र विवाह भारतीय वैदिक परम्परा मे निषिद्ध माना जाता है। गोत्र शब्द का प्रयोग वैदिक ग्रंथों में कहीं दिखायी नही देता। सपिण्ड (सगे बहन भाइ) के विवाह निषेध के बारे में ऋग्वेद के 10वें मण्डल के 10वें सूक्त मे यम यमि जुडवा बहन भाइ के सम्वाद के रूप में आख्यान द्वारा उपदेश मिलता है। यमी अपने सगे भाई यम से विवाह द्वारा संतान उत्पन्न करने की प्रबल इच्छा प्रकट करती है। परन्तु यम उसे यह अच्छे तरह से समझाता है कि ऐसा विवाह प्रकृति के नियमों के विरुद्ध होता है।
“सलक्षमा यद्विषुरुषा भवाति” ऋ10/10/2 (“सलक्ष्मा सहोदर बहन से पीडाप्रद संतान उत्पन्न होने की सम्भावना होती है।”)‌ इस विषय पर स्पष्ट जानकारी पाणिनी कालीन भारत से भी मिलती है। अष्टाध्यायी के अनुसार “ अपत्यं पौत्र प्रभृति यद गोत्रम् “, एक पुरखा के पोते, पड़पोते आदि जितनी संतान होगी वह एक गोत्र की ही कही जायेगी।

“सगापन सातवीं पीढी में समाप्त हो जाता है और घनिष्टपन जन्म और नाम के ज्ञात ना रहने पर छूट जाता है।” आधुनिक जेनेटिक अनुवांशिक विज्ञान के अनुसार inbreeding multiplier अंत:प्रजनन से उत्पन्न विकारों की सम्भावना का वर्धक गुणांक इकाई से यानी एक से कम सातवीं पीढी मे जा कर ही होता है। गणित के समीकरण के अनुसार, अंत:प्रजनन विकार गुणांक= (0.5)raised to the power Nx100, (N पीढी का सूचक है।) पहली पीढी मे N=1,से यह गुणांक 50 होगा, छटी पीढी मे N=6 से यह गुणांक 1.58 हो कर भी इकाई से बड़ा रहता है। सातवी पीढी मे जा कर N=7 होने पर ही यह अंत:प्रजनन गुणांक 0.78 हो कर इकाई यानी एक से कम हो जाता है। मतलब साफ है कि सातवी पीढी के बाद ही अनुवांशिक रोगों की सम्भावना समाप्त होती है। यह एक अत्यंत विस्मयकारी आधुनिक विज्ञान के अनुरूप सत्य है जिसे हमारे पुरुखों ने सपिण्ड विवाह निषेध कर के बताया था।

सपिण्ड विवाह निषेध भारतीय वैदिक परम्परा की विश्व भर मे एक अत्यन्त आधुनिक विज्ञान से अनुमोदित व्यवस्था है। पुरानी सभ्यता चीन, कोरिया, इत्यादि मे भी गोत्र /सपिण्ड विवाह अमान्य है. परन्तु मुस्लिम और दूसरे पश्चिमी सभ्यताओं मे यह विषय आधुनिक विज्ञान के द्वारा ही लाया जाने के प्रयास चल रहे हैं. एक जानकारी भारत वर्ष के कुछ मुस्लिम समुदायों के बारे मे भी पता चली है। ये मुसलमान भाई मुस्लिम धर्म मे जाने से पहले के अपने हिंदु गोत्रों को अब भी याद रखते हैं और विवाह सम्बंध बनाने समय पर सगोत्र विवाह नही करते।

माना जाता है, कि मूल पुरुष ब्रह्मा के चार पुत्र हुए, भृगु, अंगिरा, मरीचि और अत्रि। भृगु के कुल मे जमदग्नि, अंगिरा के गौतम और भरद्वाज, मरीचि के कश्यप,वसिष्ट एवं अत्रि के विश्वामित्र हुए। इस प्रकार जमदग्नि, गौतम, भरद्वाज, कश्यप, वसिष्ट, अगस्त्य और विश्वामित्र ये सात ऋषि आगे चल कर गोत्रकर्ता या वंश चलाने वाले हुए। आधुनिक काल मे जनसंख्या वृद्धि से उत्तरोत्तर समाज, आज इतना बडा हो गया है कि सगोत्र होने पर भी सपिंड न होंने की सम्भावना होती है। इस लिए विवाह सम्बंध के लिए आधुनिक काल मे अपना गोत्र छोड़ देना आवश्यक नही रह गया है. परंतु सगोत्र होने पर सपिण्ड की परीक्षा आवश्यक हो जाती है.यह इतनी सुगम नही होती। सात पीढी पहले के पूर्वजों की जानकारी साधारणत: उपलब्ध नही रह्ती। इसी लिए सगोत्र विवाह न करना ही ठीक माना जाता है। इसी लिए 1955 के हिंदु विवाह सम्बंधित कानून मे सगोत्र विवाह को भारतीय न्याय व्यवस्था मे अनुचित नही माना गया। परंतु अंत:प्रजनन की रोक के लिए कुछ मार्ग निर्देशन भी किया गया है। गोत्र या दूसरे प्रचलित नामों, उपाधियों को बिना विवेक के सपिण्ड निरोधक नही समझना चाहिये।

गोत्र शब्द का प्रयोग वैदिक ग्रंथों मे कहीं दिखायी नही देता।

आर्यसमाज की परम्परा में गुण कर्म स्वभाव‌ पर आधारित वर्ण व्यवस्था पर ही सारा जोर दिया जाता है | परम्परा से चली आ रही रीतियां कोई विशेष महत्त्व नहीं रखती हैं |उनका महत्व उतना ही है जिससे आपकी ऐतिहासिक परमपराओं का आपको ज्ञान हो सके | गोत्र की आवश्यक्‍ता केवल विवाह आदि ही के निर्धारण में, इनमें ली जाने वाली सावधानियों हेतु आवश्यक है। अन्यथा इनका महत्त्व विशेष नहीं लगता है। आर्यसमाजी इन सब बखेड़ों में भी कम ही पड़ते हैं |

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Social Consciousness-सामाजिक चेतना

आर्थिक,सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, धार्मिक,राष्ट्रीय तथा समाज में प्रचलित परम्परागत मूल्यों के परस्पर संवाद से जो आया बोध जागृत होता है उसकी समाज और विश्लेषणात्मक शक्ति का नाम सामाजिक चेतना हो सकता है। सामाजिक चेतना केवा समझ ही नहीं देती बल्कि वह सामाजिक उदेश्यों को पूरा करने के लिए आगे बढ़ने की प्रेरणा भी देती है। हमारा कुंठा से ग्रस्त जीवन में आशा रौशनी व् विश्वास जागृत करके उन्हें एक सूत्र में पिरोना ही सामाजिक चेतना का कार्य है।

यदि व्यक्ति अपने इन्द्रियों पर नियंत्रण कर ले तो सामाजिक विसंगतियां स्वत: ही दूर हो जाएंगी। वास्तव में विसंगतियों की जननी मनुष्य की कामनाएं होती है। ऐसे में शिक्षा के प्रकाश से ऐसी कामनाओं पर विराम लगता है और व्यक्ति समाज व देश हित में सोचता है, इसलिए व्यक्ति के निर्माण में शिक्षा की अहम भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता।  हर युग में समाज व राष्ट्रनिर्माण में शिक्षा की महत्ता रही है। प्राचीन काल में विद्वानों को उच्च स्थान प्राप्त था और सभी उन्हें सम्मान देते थे। वर्तमान व्यवस्था भी उससे इतर नहीं है। शिक्षित व योग्य व्यक्ति को समाज में उच्च स्थान प्राप्त है।

समाज को सही पथ पर आगे बढ़ाने के लिए दो बातों का होना अत्यंत जरूरी है- एक महान आदर्श और एक महान व्यक्तित्व। सामाजिक चेतना का बीज एक साथ चलने और चिंतन करने में है। जहां ऐसे मंत्र नहीं हैं, वहां कोई आदर्श नहीं है और जहां कोई आदर्श नहीं है, वहां जीवन लक्ष्यविहीन है। मनुष्य की अभिव्यक्तियां और चलने की राह भी अनेक है। कुल मिलाकर, मनुष्य की विभिन्न अभिव्यक्तियां ही संस्कृति है। एक समूह के व्यक्ति के साथ दूसरे समूह के व्यक्ति की अभिव्यक्ति के तरीके में भिन्नता हो सकती है। जैसे एक समूह के व्यक्ति अपने हाथों से खाते हैं, तो दूसरे समूह के व्यक्ति चम्मच से खाते हैं, किंतु सबकी संस्कृति एक ही है। इसलिए मानव समाज की संस्कृति एक और अविभाज्य है। बौद्धिक विकास के साथ मनुष्य की अभिव्यक्तियों में वृद्धि की संभावना है।

समाज के आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक व राजनीतिक कलेवर होते हैं। इस कारण उनमें अनेक विसंगतियां भी दृष्टिगत होती हैं। विसंगतिया पैदा करने वाले तत्व सदैव यही प्रयास करते हैं कि उन्हें कायम रखा जाए, लेकिन शिक्षा एक ऐसा माध्यम है जो सामाजिक विसंगतियों व समस्याओं को दूर कर सकता है। साथ ही मनुष्य में सामाजिक चेतना जागृत करने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है। शिक्षित समाज में ही कला, संस्कृति व साहित्य के उत्थान के अवसर तलाशे जा सकते हैं। शिक्षित समाज से ही प्रशासनिक, राजनैतिक व आर्थिक स्थिति मजबूत होती है।

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Regionalism of Dhanuk-धानुक समाज का क्षेत्रवाद

धानुक समाज के संगठनो के साथ साथ लोगो में भी क्षेत्रवाद हावी हो रहा है कुछ लोगो को यह बात नागवार गुजरी। लेकिन इसके ऊपर पुरे तथ्य है जिसके आधार पर यह कहा जा सकता है।

लोगों ने “क्षेत्रवाद” को सिर्फ भौगोलिक दृष्टि से देखा यह भी एक सत्य है लेकिन कुछ लोगो ने इसको दूसरे तरीके से लिया। लेकिन मेरा संगठन बोलना भी कई लोगो को नागवार गुजरा उन्हें लगा शायद मैंने यह उनके लिए बोला है। दिक्कत यही है जो हम समझ नहीं पाते हमारे अंदर या तो समझ की कमी है या इन बातो को हम देखना नहीं चाहते है या फिर हमें व्यक्ति विशेष से परेशानी है जिसकी वजह से हम बिना वजह इन बातो पर गहराई से सोचने/विचार के बजाय बिना वजह अपने ऊपर बोली गयी बात समझ बैठते है। मान लीजिये अगर आपके ऊपर बोली भी गयी हो तो क्या आपका नाम लिया नहीं तो आप यह सुनिश्चित नहीं कर नहीं कह सकते है कि कोई भी बात जो आपको लगता है कि आपके बारे में ही कही गयी हो तो समझिए कि यही अहं है जिसके बारे में हम सबको काम करने की आवश्यकता है हमें लगता है यह अहं नहीं है लेकिन यह है, कही ना कही आप अपने सामने किसी दूसरे को सुनना नहीं चाहते है आप यह मान बैठे है की आप जैसा सही कोई नहीं है।

मेरे क्षेत्रवाद कहने के पीछे निम्नलिखित कारण है:
१) लोग संगठनों में अपने रिश्तेदारों को महत्वपूर्ण पदों पर बैठाते है जिससे दूसरे क्षेत्र के अच्छे लोग वंचित हो जाते है।
२) लोग आपस में मैथिल, मगधी, अंग, सीमांचल वाले इत्यादि कह कर एक दूसरे में विभेद पैदा कर रहे है।
३) लोग मगहिया, मैथिल इत्यादि कहकर बांटने पर लगे हुए है।
४) कुर्मी को अपना भाई कह कर धानुक में विभेद पैदा कर रहे है। धानुक कुर्मी भाई भाई है तो आज भी बिहार के कुछ इलाकों में धानुक अपने आपको धानुक नहीं कह सकते है। धानुक कुर्मी में शादी विवाह होने का मतलब यह नहीं की दोनों एक ही जाति है अगर ऐसा होता तो बिहार में सरकार दोनों जातियों को एक ही वर्ग में रखती। मैं सिर्फ तथ्य बयां कर रहा हूँ यही सत्य है।
५) धानुक के लोग आपस में भाषाई आधार पर भी बांटने पर लगे हुए है जैसे मैथिल, मगही, अंगिका, बज्जिका वाले आदि।
६) गंगा के इस पार गंगा के उस पार वाले धानुक इत्यादि।
७) आप धानुक के किस वर्ग से आते है जैसे मगहिया, चिरोट आदि।
८) आप किस गोत्र से आते है अगर आप काश्यप से आते है तो आपका वर्ण अच्छा है।
९) आपके साथ सवर्ण बैठते है शर्तिया आप बहुत ही पढ़े लिखे होंगे या समझदार होंगे, बांकी लोग या तो समझदार नहीं है या वे गरीब है।
१०) पूर्वी बिहार का धानुक, उत्तर बिहार का धानुक, मध्य बिहार का धानुक इत्यादि।
धन्यवाद
शशि धर कुमार

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