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Social Hindrance – सामाजिक बाधा

मैं कई सालों से समाज को समझने, देखने और सुनने की कोशिश कर रहा हूँ। कुछ चीजें जो मुझे साफ नजर आती है जिसकी हमारे अंदर कमी है और मैं यहाँ उसके बारे में चर्चा करूँगा। निम्नलिखित बातों पर हमें ध्यान केंद्रित करना चाहिए जो मुझे लगता है कि समाज के अंदर कमी है:
१) लीडरशिप: हमारे अंदर लीडरशिप की कमी और जो लीडर है भी वे या तो सिर्फ कहलाने वाले या सिर्फ पद वाले लीडर है उनके अंदर लीडरशिप की सख्त कमी है। मेरा यहाँ लीडरशिप का मतलब सिर्फ नेताओ से नही है लीडरशिप का मतलब है दस लोगों के बीच में अपनी बातों को प्रभावी तरह से रखना, अपने संदेश को लोगों के बीच प्रभावी तरह से रखना और यह एक दिन में नही आ सकता है यह वर्षो का अथक प्रयास और सीखते रहने की लालसा के साथ शब्दो का भंडार भी होना अति आवश्यक है तभी आप सही और सार्थक शब्दो का चयन कर पाएंगे। और शब्दों का भंडार बढ़ाने के लिए किताबें पढ़ना बहुत ही महत्वपूर्ण हो जाता है।

२) सुनने की क्षमता: यह बहुत ही महत्वपूर्ण पहलू है जिसके ऊपर हैम सबको ध्यान देने की आवयश्कता है क्योंकि अगर आपके अंदर सुनने की क्षमता नही है तो आप अच्छे वक्ता नही बन सकते है। अगर आप धैर्यपूर्वक किसी को भी किसी भी मुद्दे पर बात करते सुनेंगे तो जब आप बोलेंगे तब लोग आपको भी शांति से धैर्यपूर्वक सुनेंगे। सुनने से ज्ञान के बढ़ता है शब्दो का भंडार बढ़ता है लोग आपके बारे में कैसा सोचते है उसके बारे में पता चलता है। अगर आप किसी को ध्यान से सुनेंगे तो आप समस्या के बारे में नही समाधान के बारे में सोच पाएंगे। कुछ दिन पहले मैंने इस बात का जिक्र भी किया था कि अब हमें समस्या नही समाधान के बारे में बात करना चाहिए और यही समाज को जरूरत भी है। हम अगड़ी जातियों का उदाहरण देते है कि वे अपने समाज मे संगठित है हम नही है क्योंकि हम एक दूसरे को प्यार या समय देकर नही सुनते है। अगर मैं स्पष्ट होकर कहूँ हम पूरी बात नही सुनना चाहते है हम सिर्फ सार में विश्वास करते है। अगर आप सामाजिक तौर पर कुछ करना चाहते है तो लोगो को सुनने की क्षमता बढाइये और सबको यह बात समझाइये।

३) पढ़ने की क्षमता: यह एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ आज लोग सबसे कम समय व्यतीत करते है सबसे कम मतलब सबसे कम ज़िन्दगी में आप जो भी करते है २४ घंटे के दौरान सबसे कम अगर किसी चीज को आप करते है तो वह है पढ़ाई। पढ़ाई का मतलब यह नही है कि सोशल मीडिया पर कुछ प्रेरक उद्धरण या कोई प्रेरक या प्रेरणादायक फ़ोटो पढ़ ली और सोशल मीडिया पर शेयर कर दिए उससे ज्ञान नही बढ़ता है उससे आप अपने वास्तविक भाव या काम जो जिंदगी में करने होते है उससे भटकते है। पढ़ने का मतलब है चाहे आप किताब पढ़े या ऑनलाइन किंडल आधारित किताबें पढ़े लेकिन पढ़े जरूरी नही हर तरह की किताबें पढ़ी जाए आप अपने इच्छा अनुसार किसी भी विषय की किताबो को पढ़ने के लिए समय निकालें। अगर आपका ऐच्छिक विषय मे किताब सीमित मात्रा में उपलब्ध है तो वही पढ़े लेकिन बार बार पढ़े। इससे आपका ज्ञान तो बढ़ेगा ही साथ में शब्द भंडार भी बढ़ेगा। यह आपको एक अलग तरह की शांति के साथ साथ आत्मविश्वास भी आपके अंदर पैदा करेगी।

४) सोशल मीडिया से दूरी: जितना भी संभव हो सोशल मीडिया से दूर रहे और उस समय का उपयोग किसी रचनात्मक कार्यो में लगाएं। जैसे कुछ लिखना शुरू करे या पढ़ना शुरू करे। अगर आप सोशल मीडिया पर रहना ही चाहते है तो उसका उपयोग भी रचनात्मक रूप में करे ताकि लोग आपकी बातों से प्रेरित हो। कोशिश करे कुछ अपना लिखने की ताकि लोगों को आपके लेख से आपके लेखनी की खुशबू आये तभी लोग आत्मीयता महसूस करेंगे। ऐसे पोस्ट या ऐसे लेखों का क्या अस्तित्व जब लोग लाइक या कमेंट तो कर दे लेकिन उसका मर्म ही ना समझ पाए। इससे दो फायदे होंगे एक तो आप लिखते लिखते अपनी गलतियों पर सुधार कर पाएंगे और दूसरा आप अपने शब्दों के भंडार में बढ़ोतरी भी कर पाएंगे। हमारे लोग सोशल मीडिया पर क्या करते है ज्यादातर वे या तो दूसरों की कही बातें शेयर करते है या कोई फ़ोटो शेयर करते है जिससे साफ साफ झलकता है कि आप कितने कच्चे है। हो सकता है कइयों को इन बातों से बुरा लगेगा लेकिन यह कटु सत्य है।

५) विश्वास की कमी: हमारे समाज में इस बात की सख्त कमी है जिसकी वजह से हम एक नही हो पा रहे है। मैंने जो अभी तक देखा है लोग कुछ समय के लिए एक होकर चलने की बात तो करते है लेकिन कुछ समय के बाद आपस मे संशय, एक दूसरे के ऊपर विश्वास की सख्त कमी, एक दूसरे के प्रति सम्मान कम होने लगता है जिसकी वजह से समाज में बिखराव की स्थिति उत्पन्न होने लगती है। इसकी एक बड़ी वजह जो मुझे आजतक के सामाजिक संपर्क में नजर आया वह है अपनी गलती नही मानने की ज़िद। किसी भी तरह का आपसी संदेह, संशय, विश्वास, सम्मान की कमी कही ना कही एक गलती की वजह से होती है लेकिन हमारी गलती नही मानने की ज़िद हमें यह मानने को मना करता है जिसकी वजह से हम सामाजिक रिश्ते में दरार के रूप में देखते है। इसकी एक वजह और भी है कि हम अपने आप को दूसरों से ज्यादा समझदार और बुद्धिमान समझने लगते है और दूसरों को हम तुच्छ या कम बुद्धिमान समझने लगते है। हो सकता है कइयों को यह बुरा लगे लेकिन यह उतना ही सत्य है जितना प्रत्येक दिन सूर्य का पूर्व दिशा से उदयमान होना। इससे हम निजात पा सकते है अगर हम एक दूसरे को सुनने, समझने और मिलने का समय दे।

धन्यवाद।
शशि धर कुमार

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Identity Crisis – पहचान का संकट

ऐसा लगता है की हम identity crisis (पहचान के संकट) के दौर में ही है ऐसे ऐसे पोस्ट देखने को मिलते है जो आज भी यह साबित करता है की हम मानसिक तौर पर गुलामी में जी रहे है। हम यह निर्णय नहीं कर पा रहे है की हम क्या है और कहाँ से इसी वजह से हम पहचान के संकट के दौर से गुजर रहे है। लगता है की समाज जाग रहा है लेकिन जो युवा वर्ग है कही ना कही भटकाव में जी रहा है या किसी ऐसे अनचाहे लालच में हम जीने के आदि हो गए है जिसके बारे में सोचना नहीं चाहते है या सीधे भाषा में समझे तो कूप मंडूक हो रहे है कहने को तो स्मार्टफोन का उपयोग और अपने अपने व्यक्तिगत वाहनों पर घूम रहे है लेकिन हम नहीं जानते है की हम वाकई में क्या थे और आज क्या है।

मैंने कूप मंडूक शब्द का इस्तेमाल इसीलिए किया है क्योंकि यह वास्तिवकता में है और हम अपने उसी पुरातन वाले जीवन में जी रहे है जिसमे हमारी अपनी पहचान जिसको चौतरफा संकटो ने घेर रखा था और आज भी हम उसी पहचान के संकट के दौर में जी रहे है हमने ना तो इतिहास से सबक लिया और ना ही वर्तमान से कोई सीख लेना चाहते है। आँख मूंदकर कर उसी विश्वास में जी रहे है की हमारे आगे कोई नहीं बस हम ही है जो है किसी औकात हमारे सामने आँख उठाकर बात कर ले। लेकिन वास्तिवकता में आज भी हमारी कोई पहचान नहीं है जिसके ऊपर हम गर्व कर सके हो सकता है कइयों को यह बात गलत लगे लेकिन हम अपने गलतियों से सीखने के माहिर नहीं है। किसी ने मुझसे कहा था अपनी गलतियों से सीखने जाएंगे तो जिंदगी कम पड़ जाएगी दुसरो की गलतियों से सीखिए तो अपने आप को सुधार भी पाएंगे और समाज को वापस कुछ दे भी पाएंगे लेकिन यह अलग बात है कि जिन्होंने यह बात कही थी वे खुद इस बात पर खड़े नहीं रह सके।

एक दुसरो को नीचा दिखाने से कोई बड़ा नहीं होता और मैंने बारम्बार यह कहा है की सामाजिक कार्य में कोई बड़ा या छोटा नहीं होता ना ही किसी का कार्य समाज में उसके महान होने का साबुत है। इसीलिए हर व्यक्ति जो सामाजिक कार्यो को लेकर जागरूक है या किसी भी तरह से समाज की मदद करना चाहता है वे आगे आये और मदद करे समाज व्यक्ति से बनता है लेकिन मैंने अपने छोटे से सामाजिक संपर्क जीवन में बहुत सारे ऐसे बंधुओ को देखा है जो कहते थे की मुझे समाज की जरुरत नहीं है लेकिन एक समय के बाद वे खुद चलकर बोल रहे है एक समय जीवन में ऐसा आएगा जब आपको जरुरत पड़ती ही है। आइये हम सभी एक दूसरे का दामन थामकर एक दूसरे के काम आने का प्रयास करे यही मेरी कामना है।

आपका शुभचिंतक
शशि धर कुमार

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सामाजिक एकता ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की नजर में

सामाजिक एकता ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की नजर में

Social Harmony - सामाजिक एकता सामाजिक एकता – अपना सफल जीवन बनाने के वास्ते हम सब मिलकर चले, मिलकर बातचीत करें और एकमत होकर हम सब अपनी जीवन-यात्रा पूरी करें जैसा कि पहिले के विद्वान किया करते थे। हमारी सभाएं हमारे मन, हमारे विचार, हमारी काम करने की शैली, एक जैसी अविरुद्ध हों। हमारे शुभ संकल्प एक जैसे हों, हमारे मन और हृदय अविरुद्ध हों जिससे हम एक दूसरे की यथा समय सहायता कर सकें। हम कभी अपने आपको अकेला न समझें और पड़ोसी, मुहल्ले वालों, नगर-निवासियों और देशवासियों की सहायता करने पर तत्पर रहे। प्राचीन काल में सभी लोग एक स्थान पर सम्मिलित होकर सामूहिक मंत्रणाएं किया करते थे, उनके कार्य परस्पर अविरुद्ध होते थे जिससे उनका सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन संगठित था, उसमें पारस्परिक फूट और विश्रृंखलता नहीं थी और इसी कारण उस काल में हम संगठन के शिखर पर आसीन थे। हमारा जीवन आज की अपेक्षा अधिक सामाजिक और सुसंस्कृत था। उस समय प्रत्येक व्यक्ति, वैयक्तिक सुख, स्वतंत्रता, कीर्ति, अधिकार आदि की आकाँक्षाओं को भूलकर सार्वजनिक सुख को ही जीवन का ध्येय बनाना चाहता था।

आज हम जाति के तौर पर अत्यन्त असंगठित और असहाय है। हम संसार की अन्य जातियों की तुलना में कम सामाजिक है और इसलिए हम बांकियों द्वारा पद दलित होते रहे है। हमारी इस दुरवस्था का कारणों पर यथोचित ध्यान नहीं दिया और हमने अपनी विचार-धारा और कार्य प्रणाली को एक समान बनाने का सफल प्रयत्न नहीं किया। पारस्परिक मतभेद के कारण हमारी जाति आज अत्यन्त जर्जरित है और यदि हम अपने आपको नहीं सँभालते है तो भय है कि जीवन संग्राम में हम पराजित न हो जावे और अन्य जातियाँ हमे आत्मसात् न कर लें। अतएव यह उपयुक्त अवसर है कि हम यह जान लें कि किस तरह हम आज अपनी रक्षा कर सकते हैं? और वे कौन से कारण हैं जिनके कारण विजयी धानुक जाति आगे चलकर बहुत समय तक भी सुख समृधि के साथ रह पाए?

संसार की जातियों के इतिहास का अध्ययन करने से पता चलता है कि प्रत्येक जाति अपने पूर्व इतिहास, जातीय और धार्मिक, साहित्य तथा संस्कृति से प्रभावित रहती है। उसके जातीय जीवन के अन्तस्तल में एक विशेष भाव या खयाल ही काम करता नजर आता है और वही जातीय जीवन को चलाता है। आज तो यह खयाल हमारे अन्दर अकेले ही जोर पकड़ गया है और फल स्वरूप लोक सेवा की दृष्टि से कार्य करने के पूर्वजों के विचार तथा इस विचार को मर्यादित रखने के लिए अन्य विचार दब से गए हैं। अच्छे से अच्छा विचार भी जब किसी समाज में अकेले ही जोर पकड़ जाता है तब वह उस समाज को नीचे ढकेल देता है। इस कारण हमारी विचार धारा और जीवन के असंतुलित होने से यह विचार हमारे असामाजिक जीवन का जन्म दाता बन हमारे पतन का कारण बन गया है। हमारे समाज के अनेकों कल्याण कामी व्यक्तियों के जीवन का लक्ष्य संसार को मिथ्या मानकर तथा प्रिय परिजनों एवं समाज की सेवा को मोह एवं बन्धन का कारण मानकर और इसलिए संसार से भागकर आत्मकल्याण करना तथा लोक हितकारी कर्तव्यों से विरत रहना, बन गया है। इसी कारण धानुक जाति अन्य जातियों के मुकाबले में अधिक सामाजिक नहीं हो पाई।

हम अधिकतर समाज से भागकर ही सामाजिक सुख दुखों से अनासक्त रहने वाला और उसके सुख दुखों से कम सम्बन्ध रखने वाला बनाती रही है। जबकि अभी तक सदाचारी, विद्वान और श्रेष्ठजनों पर मायावाद का प्रभाव समाज के बंधनों को तोड़कर साँसारिक जीवन से दूर भगाकर उन्हें असामाजिक बना देना ही रहा है तब योग्य कर्णधारों के अभाव में समाज और भी अधिक असामाजिक और विच्छृंखल न होता तो क्या होता? किन्तु यदि हम लोग भगवान कृष्ण के कर्मयोग के संदेश को कि “यद्यपि मुझे संसार में कुछ भी अप्राप्त और अप्राप्य नहीं है तथापि मैं, फिर भी कर्म करता ही रहता हूँ” पहिले से ही न भूलते तो संभव है कि हमें ये दुर्दिन देखने को न मिलते।

धानुक जाति की यह दुरवस्था तब से हुई जब से कि हमारे सामाजिक जीवन से सामाजिक एकता लुप्त हो गई और हम अनेक दिशाओं में जाने लगे। हमारा सामाजिक पतन तब से आरंभ हुआ जब से कि हमने एक साथ मिलकर बातचीत करना एवं एक साथ मिलकर विचार करना छोड़ दिया और हमने अपने सामाजिक संगठन के सर्वोत्तम प्रतीक एवं आधार का भी परित्याग कर दिया। पहले के लोग समय समय पर एक ही स्थान पर सम्मिलित होकर सामूहिक मंत्रणाएं किया करते थे किंतु जब से हमने स्वतंत्र रूप से विचार करने के साथ साथ एक ही विचारधारा पर पहुँच कर एक जैसा कार्य करने के उत्तरदायित्व का समुचित निर्वाह करना छोड़ दिया तब से हम भिन्न भिन्न दिशाओं में गमन करने लगे और हमारे एक सूत्र में बंधकर कार्य करने की आशा जाती रही। लोग अपनी अपनी ढपली पर अपना अपना राग अलापने लगे और हमारी एकता लुप्त होती गई। इस पृथकता को मिटाकर हम सामाजिक एकता की ओर बढ़ें इसी में हमारा कल्याण है।

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